Monday, January 25, 2016

निस्का बोमो , निस्का बोमो ,बूचा मेथ !

दादा हमारे डाक बाबू थे, ब्रिटिश शासनकाल  में। यह समाज में रुतबे वाला पद था। उन दिनों लद्दाख में तैनाती थी।  दादी को लेकिन पास पड़ोस की महिलाओं की खुसर पुसर से परेशानी थी । निस्का बोमो , निस्का बोमो ,बूचा  मेथ ! यानि लड़कियां ही लड़कियां हैं , लड़का कोई नहीं। सो जब पिता जी का जनम हुआ तो लाडले बच्चे का नाम रखा गया जवाहर लाल । दादी तो दादी  हमारी बुआओं ने भी इस भाई को लाड  लडाने  में कोई कमी न छोड़ी। 70  साल पहले घर का खाना पसंद न आने पे इस बच्चे के लिए होटल से पसंद का खाना मंगवाया जाता रहा  !  अंग्रेज गए  देश आजाद हुआ। बंटवारे के दौरान गाँव का घर जला दिया गया। किसी तरह खाली हाथ लुट  पिट कर शहर पहुंचे और एक रिश्तेदार के किराये के मकान  में शरण ली।

जैसे तैसे पढ़ाई की। कश्मीर में ढंग का काम न मिलना था न मिला। इस दौरान प्यार , शादी ,बच्चा वगेरह सब हो गया। सो एक दिन 8 रुपय्ये  जेब  में डाले दिल्ली चले आये! बहन  के पास। एक समाचार एजेंसी में मामूली सा काम मिला। अब कमरे का किराया और पीछे घर को खर्चे के लिए पैसा भेजने के बाद दो वक़्त की रोटी खाने लायक नहीं बचता  था।  सस्ता जमाना था ;रोटी के साथ दाल  मुफ्त मिला करती थी। सो दो रोटी का पैसा चुकाते   रहे और फ्री दाल से पेट भरते रहे। तीसरी खाते तो शाम का क्या होता?

समय के साथ कुछ चीज़ें बदली।  नहीं बदला तो यह की हम पिताजी को दुनियादार नहीं बना सके।  पत्नी के ताने बेकार ; बच्चों का रूठना बेकार; दोस्तों का रस्ता दिखाना   बेकार; रिश्तेदारों का उलाहना बेकार।  अरे भई अमुक आदमी फलां पोस्ट  आपसे पहले कैसे पा गया ? देखिये उसको सरकारी घर मिला ; आप कहाँ रह गए ? अच्छा हम लोग कार  क्यों नहीं ले सकते? मंत्री जी से नहीं कहला सकते तो इतने साल पत्रकारिता का क्या फायदा?  हे भगवन यह सीधा  आदमी हमारे ही पल्ले पड़ना था?

सालो हमारे घर में वृहत परिवार के लोग आते रहे।  कोई शिक्षा  के लिए , कोई नौकरी के लिए , कोई मुसीबत का मारा तो कोई वैसे ही सर्दियों में दिल्ली घूमने के लिए। कोई 6  दिन रहा कोई 6 साल।  हम चाहे मन में कोसते रहे ,पर पिता के चेहरे  पे कोई शिकन न आई। हमारे घर का नाम रखा था "जवाहर  ढाबा". आज भी जब हम दो तीन लोग ही खाने की टेबल होते हैं तो बड़ा अजीब लगता है।

किसी आदमी  का मूल्यांकन उसकी वाणी , विचार और कर्म से करें।  उसके पद , पैसे और पुरस्कार से नहीं। फिर भी अच्छा लगा एक शरीफ आदमी का यूँ  सम्मान  पाना। आज उन्हें मिला पदम श्री सिर्फ उनका नहीं है।
जीवन में जितने लोगों ने उनका साथ पाया उन सबका भी है। हर उस सीधे ,और भोले इंसान का भी है जो जोड़ तोड़ नहीं जानता।  जो जुगाड़ नहीं बिठा पाता;बस अपना कर्म अपनी शक्ति अनुसार करता रहता है

मै थोड़ी दृष्टता तो कर रहा हूँ पर जानता  हूँ कि मेरे पिता  बुरा नहीं मनाएंगे। सो यह सम्मान  हमारे परिवार की परम्पराओं के अनुसार आप सब के साथ साँझा कर रहा हूँ. चाहें तो आप भी आगे हर  भले मानुस के साथ साँझा  कर लें।

लोग झूठ बोलते हैं; सीधी  ऊँगली से भी घी निकलता है। आप सबको गणतंत्र दिवस की  बधाई !  
 












Friday, January 8, 2016

आम और खास का सफर !

 
अच्छा  शादी हो जाये और कुछ देर चले भी तो बाल  बच्चे हो ही जाते हैं। इस का फायदा बहुत है।  आदमी को कई बातों की आदत पड़ जाती है।  दिल भी  पक्का हो जाता है। दुःख भी नहीं होता।  मालूम है कि भाई तेरी कोई नहीं सुनेगा ! जिसको जो करना है वही करेगा।  पर इस वजह से कोई चुप रहता हो ऐसा कम ही देखा  है । इंसान  नक्कार खाने में तूती बजाने  से बाज़   नहीं रहता । मै  क्या  किसी से अलग  हूँ ?

सो एक सलाह केजरीवाल जी को बिना मांगे दे देता हूँ।  सम - विषम  पे अपनी पीठ थपथाने से पहले और अपनी तस्वीरों का अख़बारों में  दीदार करने  के बाद ,  अपना छोटा मोटा सामान उठाएं और अपने  कौशांबी वाले    घर में अगले 15  दिन रहें।  लाव लश्कर के बिना। वह पहले की वैगन आर ( अगर कही हो तो ) से सम - विषम का ध्यान रखते हुए दफ्तर आयें ।  कौशाम्बी स्टेशन से  मेट्रो भी पकड़ें।  फिर देखें कि  आम आदमी को किस तरह की समस्या से दो चार होना  पड़ता है और कहाँ पहुँचने में कितना समय  लगता है। लगे   हाथों  रास्ते में आम आदमी आपको सच  सच इस कार्यक्रम की औकात बताएँगे। ये कर  सकें तो ज्यादा अच्छी तरह समझ लेंगे कि सार्वजनिक परिवहन को दुरुस्त  किये बिना और उद्योग जनित प्रदूषण पे नकेल कसे  बगैर प्रदूषण की समस्या इस तरह  के सजावटी कार्यक्रम से काबू में न आएगी। हाँ इसमें काम बहुत है. वोट बैंक की राजनीती भी नहीं हो सकेगी. और ऊपर से चुनाव से पहले काम खत्म हो न हो।  ऊपर से पंजाब का चुनाव भी आ गया।  तो वहां दिखने सुनाने को भी कुछ चाहिए !

दरबारी विदूषक की तुकबंदी  तथा  दाहिने हाथ के साइकिल पे फोटो छपवाने से बात नहीं बनती. गर आप ख़ास तरह के आम  न हो गए हों  तो है ; वरना हमारी वैसे ही कोई नहीं सुनता।  आप भी न सुने !